Wednesday, November 4, 2009

पनाहगाह

"Main Dram GC" @ IIT-B



" परिंदे आते है परदेस से, ये सोचकर की कुछ दिन रहेंगे और निकल पड़ेंगे कहीं... इसी चाह में वो किसी पेड़ से पनाह लेते है... और उसी " पनाहगाह " को अपना बसेरा बना लेते है..."


अब्बू कहा करते थे,

आँखों की बरसात बचा के रखना,

लोग आग लगाना नहीं भूले हैं,

पर उस बरसात से ज्वालामुखी को,

चाहूँ तो भी बुझाऊँ कैसे...


दिल में चुभ रही थी एक कील,

दर्द सहना हो रहा था मुश्किल,

हाथ विद्रोही बन बैठे,

आक्रोश और द्वेष उसका साथ दे बैठे,

ना रोक सका उस प्यासे खंजर को,

जो मास्टर के बदन को छ्लनी कर बैठे...


अजनबीयों के शहर में,

अपना ही वजूद अजनबी लगने लगा,

जोकर का मुखौटा पहने आईने में,

खुद को पहचानने की कोशिश करने लगा,

आया था चेहरा छुपाने, पर

चेहरे ने ही दिया अनजाना करार...

जैसा किया वैसा पाया,

अब ना है किसी सुख की चाह,

ये एक सर्कस नहीं,

पनाहगाह है, पनाहगाह...!!!

2 comments:

  1. इन पंक्तियों को मैं मंच पर न्याय तो न दे सका .. पर मुझे पूरा भरोसा है की ये अपने आप मैं एक बेहद लाजवाब कृती है ..
    उम्मीद है आगे भी ऐसी और पढने को मिलेंगी |

    - प्रस्तुति में कमी के लिए माफ़ी

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